शिक्षकों की बात…. “तबादला अधिनियम विसंगतियों का एक ड्राफ्ट” इस साल भी शून्य हुए ट्रांसफर”

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सरकारी विभागों के लिए आया तबादला अधिनियम प्रदेश के अन्य विभागों के लिए कितना उचित है, मैं नहीं जानता लेकिन शिक्षा विभाग के लिए यह सिर्फ एक विसंगतियों के ड्राफ्ट के सिवा कुछ नहीं हैं। सर्वप्रथम तो विद्यालयों की अवस्थिति की अन्य विभागों के साथ तुलना ही नहीं हो सकती। प्रदेश की विषम भौगोलिक परिस्थितियों में विद्यालय एक ऐसी संस्था है जो दुर्गम से दुर्गम स्थानों पर अस्तित्व में है। शिक्षा जैसा महत्वपूर्ण संसाधन हर किसी को उपलब्ध हो, यह सब चाहते हैं, हम भी चाहते हैं। लेकिन तबादला अधिनियम के तहत विद्यालयों का जो कोटिकरण किया गया है, वह एक हास्यास्पद स्थिति है। कोटिकरण के मानक खुद भी नहीं जानते होंगे कि उन्हें कब कैसा और कितना तोड़ा मरोड़ा गया है। मानकों का निर्धारण 20×20 के वातानुकूलित कमरों में हुआ, उनके कार्यान्वयन के लिए भी वही प्रक्रिया अपनाई गई। नतीजा यह हुआ कि पूरी की पूरी स्थानान्तरण प्रक्रिया ही फ्लॉप हो गई। बिना धरातलीय परिस्थितियों को जाने बनाई गई नीतियों का यही हश्र होता है।
अब मानकों की बानगी एक उदाहरण से समझिऐ …दो स्कूल हैं …. एक स्कूल जिसकी समुद्र तट से ऊंचाई ज्यादा है लेकिन सड़क पर है, खंड मुख्यालय पर स्थित है और दुर्गम है। वहीं दूसरा स्कूल जो एक गधेरे में स्थित है, कई किमी पैदल रास्ता है लेकिन ऊंचाई के मानक में वह सुगम है। अब इसी नंबर सिस्टम से दुर्गम सुगम और सुगम दुर्गम बन जाता है। आप एक शिक्षक के रूप में समझिए कि हम अपनी आंखों के सामने कैसा मजाक देखते हैं।

बहरहाल मुद्दा सिर्फ यह नहीं है कि स्थानान्तरण की प्रक्रिया का पालन नहीं होता। इसके बहुत गहरे प्रभाव हैं। हमारे कई साथी एक तरह से अवसाद में हैं। गढ़वाल और कुमाऊं दोनो जगह शिक्षकों को स्थानान्तरण के लिए चप्पल घिसते घिसते सालों हो गए लेकिन उनके जायज स्थानान्तरण को इतना कठिन बना दिया जाता है कि शिक्षक थक हार कर बैठ जाता है। और विभाग जानता है कि ये बेबस प्राणी कर भी क्या सकते हैं। यह विभाग चंद हुक्मरानों के भरोसे नहीं चल सकता। हमारे लिए हमारा हर शिक्षक उतना ही महत्वपूर्ण है।

अति दुर्गम क्षेत्रों में कार्यरत शिक्षक जो कई सालों से एक ही स्थान पर पड़ा है जिसकी सुनने वाला कोई नहीं है, तो उसकी मानसिक स्थिति का सहज अंदाजा लगाया जा सकता है। हमारे साथी हमारे विभाग की लापरवाही और उपेक्षा का शिकार हैं।

इस बार सरकार ने पुनः शिक्षकों के तबादलों को लेकर वही उपेक्षा का रुख अपनाया है और शैक्षिक सत्र को शून्य करते हुए उनकी उम्मीद को भी शून्य कर दिया है। सरकार लगातार पांच सालों से शिक्षकों के तबादलों को लेकर हीला हवाली कर रही है ।

असंवेदनशीलता का चरम है कि उसकी कानों पर जूँ नहीं रेंगती। देश में कर्मचारी चुनाव ड्यूटी कर सकते हैं, वोट के लिए इधर उधर जा सकते हैं, लेकिन उनके स्थानांतरण के लिए कोरोना वजह बन जाता है। चलो मान भी लिया जाए कि कोरोना महामारी इस वक्त एक बड़ी समस्या है, लेकिन विगत पांच सालों से ठंडे बस्ते में पड़े तबादले उससे भी बड़ी समस्या की ओर इशारा करते हैं और वह है विभागीय मंशा और लापरवाही। यह एक साल का मसला नहीं है। हम यह इजाजत नहीं दे सकते हैं कि महामारी का बहाना बनाकर विभाग अपनी जिम्मेदारियों से भागता रहे। हमारे शिक्षक साथियों को नियमानुसार तबादले का हक है और यह होना ही चाहिए।

रविशंकर गुसांई
संयुक्त मंत्री
राजकीय शिक्षक संघ
कुमाऊं मंडल
उत्तराखंड

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